Saturday 12 June 2010

मैं मन्दिर में

मैं माता के मन्दिर में
जाऊ नित नित
ज्योती जलाऊ .लाल फूल चढ़ाऊ
और प्रसाद पाऊ ..नित नित

डोली में बैठकर आत्ती हैं माँ मन्दिर
लाल चुनरिया ओढ़ कर आती
मैं उनका दर्शन पाती नित नित
शक्ती ..मुक्ति पा लेती
माता रहती हमसबके संग
मन्दिर में
naachate गाते सभी मिलकर
माँ का देख शशि मुख
खुशी से मेरा मन जाता हैं झूम
खिले रात में लगे माता की सुन्दरता
उज्जवल दिन सा
मैं चाहू देखती रहूँ उन्हें
और आनंद की
अम्रित की धारा में बह जाऊ
बन एक धारा
देती रहें और मुझे माँ
इसी तरह आशीर्वाद नित नित

बरखा ग्यानी


बरखा ज्ञानी जी ने बताया -१२-०६-2010

१-आस्था शिव जी की -
शिव और शिवाय: कों प्रणाम

२-ईश्वर प्रेम ही आनंद हैं
आनंद ही ईश्वर प्रेम हैं
प्रेम ही सत्य हैं
सादगी में ही खूबसूरती होती हैं
न चेहेरे में
न मोहरे में
न तन में .....न मन में
न कण कण में ...न ही बूंद बूंद में
बस वत्सला के व्यापक मन में हैं
ईश्वर का वास
जहां जलता हैं एक दीपक
निरन्तर फैला अपना प्रकाश
वहाँ पर हैं अभिन्न
जड़ चेतन का बोध
जीवन में ईश्वर के प्रति
प्रबल आस्था में ही करती हूँ मैं विशवास
हमें वही हैं करना चाहिए कार्य
जैसा उम्मीद करते उनसे ....
अपने लिये शुभ व्यवहार
मुझे हैं ज्ञान
की -
मेरा अवचेतन मन
ढूंढ़ लेगा मेरे लक्ष्य के लिये
अपने अनुकूल वह
आद्यात्मिक संसार
क्योकि -
मैंने कर दीया हैं
अपना सर्वस्य
-ईश्वर या अवचेतन मन या प्रकृति
के सम्मुख -समर्पण
और मुझे भी जानते हैं
निकटता से स्वयं भगवान
साथ ही
मिलता रहता हैं इस साधना में मुझे
सूक्ष्म रूप से आनंद
और मैं हो जाती हूँ क्षण क्षण में विभोर
मुझे हैं यह अनुभव
की -
यही हैं सच्चा प्यार
लेकिन
मैं चुकूँगी नहीं कभी
कर्तव्य निर्वाह के प्रति
जिसमे शामिल हैं
ईश्वर और मेरा सुखमय परिवार

मेरे मन के दरवाजे कों
किसी ने खटखटाया
और
मैं इस लोक से दूर पहुँच गयी
आनंद के लोक फिर एक बार
तब दिखा
मेरे शरीर कों घेरा हैं एक सागर ने
मैं बैठी हूँ अतल में
तभी आये नागराज
मैं झूम उठी खुशी से
फिर एकाएक -बह गयी नदी के संग
और बिखरी सप्त वर्णीय रोशनी
फिर
जला एक द्दीया -उससे प्रेरित हो जले
दीपक अनेक
ॐ ॐ की गूंज सुन
मैं स्वयं बन गयी ध्वनी वह
जो निमग्न थी
बन उन किरणों की शीतल आंच

तभी आयी नंदी गाय
उसका रूप निरख
मैं हो गयी अभिभूत
फिर नदी की लहरों ने फेरे हाथ

तट क्षण मैं
पीकर अम्रित बन गयी नन्ही बालिका
फिर मुझे दिखा सफ़ेद मन्दिर
जहां पहुंचे मैं औए मेरे बाल सखा नाग
तभी
नीले आकाश से आयी एक रोशनी
जो मुझे लेकर साथ
ले आयी पुन:
इस धरती में मेरी देह के पास
फिर हवा में मैं आत्मा ....झूला झूलती रही
फिर मुझे बुलाया प्रकाश के घर ने
उसे पार कर
पहुंची भीतर अपनी देह में
कुछ समय तक माता की ऊर्जा ने
दिखलाए साहसिक कमाल
अंत में इस प्रकार
मैं मरकर फिर
पुनर जीवित हो उठी ॥
ऐसा होता हैं मेरी दिनचर्या में
अनेको बार

बरखा ग्यानी




Friday 4 June 2010

रहते हम प्रभु के संग तल्लीन



हम प्रभु के संग तल्लीन

उस पार जहां ...न तन की न मन की कामनाये होती हैं अधीर

वहां ........

पर हैं शुभ्र रश्मियों से बना एक श्वेत मन्दिर

रेत के कण कण होते हैं स्वर्णिम

लहरों के शीतल जल से भींगी ...हवा बहती हैं मद्धीम मद्धीम ..

।रंग बिरंगे फूल खिले होते हैं ....सुगंध सहित अनगिन


वहां -

सत्य की चेतना से कण कण होते हैं हर्षित

सारे बिम्ब नहीं होते कांच में समाये प्रतिबिम्बों के अधीन


वहाँ -

तांडव नृत्य में सभी होते हैं प्रवीन

ओम नाद के संग गूंजता मधुर संगीत

अम्रित पान के लिये सभी रहते हैं आतुर

उस लोक से कोई लौटना नहीं चाहता

पर आते हैं हम सभी करने श्रेष्ठ कार्य ताकि -हो सके .....

आनंदित सत्य के चरणों में पुष्पों के सदृश्य हम ...अर्पित


मन्दिर के भीतर विराजती माता पार्वती संग रहते हैं सदा शिव

नागराज .......सखानंद ॥नृत्य प्रशिक्षक और तृष्णा ....प्रसाद के वितरक

शंख ...करताल ...डमरू की ध्वनियों के बीच

ॐ नम: शिवाय के होते हैं मन्त्र उच्चरित


वत्सला -पहन लाल वस्त्र पाती

महादेव और मां अम्बा का सस्नेह आशीष

नन्हे ननकू कों लगती हैं प्यास

तब वह पीता हैं मांगकर अमृत की बुँदे -अतिरिक्त

उस पार जहां -हैं शिवलोक

कनक पुर से होते हुए आकाश में छाये बादलों कों पार करते हुए जाना पड़ता हैं लेकिन

प्रकाश पुंज के भीतर किरणों सा -होकर प्रवाहित

उस पार जहां न तन की न मन की होती हैं कामनाये अधीर

बस

रहते हम प्रभु के संग तल्लीन


बरखा ग्यानी