Tuesday, 13 April 2010

दिखा भव्य मन्दिर एक


मंद शीतल हवा के साथ मैं बह रही थी

दूर से सुनायी दे रहा था संगीत एवं मधुर गीत ॥समवेत

दूध सा सफ़ेद

दिखा भव्य मन्दिर एक

आस पास दूब हरे कुछ कंटीले थे पेड़

मध्य में उनके ही बाहर मन्दिर

जलाशय से निकली एक ज्योती -जल-परतों कों भेद

जब आयी मां दुर्गा संग महेश

सिंह पर बैठीं लिये रूप में -था सूर्य सा तेज

और हाथों में थे शस्त्र अनेक

झुण्ड में उड़ रहें थे हंस तभी आयी माँ सरस्वती

कर में थी -वीणा और वेद

हंस पर विराजित शुभ्र वस्त्र कों धारण किये हुए था वेश

ध्यान मग्ना मैं थी प्रसन्न बहुत

लग रहा था वहीँ रह जाऊ जहां पर थे सम्मुख मेरे -नृत्य करते प्रकाश बिन्दुओ के पुंज ।

शिव शिवा समेत *

बरखा ग्यानी

Friday, 2 April 2010

यही हैं एक सच


कैसे करू स्वयं कों अभिव्यक्त

तुम्हारे स्मरण की अमिट छाप हैं मेरे मन पर अंकित

और उसका प्रभाव भी हैं मुझ पर सशक्त

तुम्हारी दृष्टी के व्यापक कोण के आभास से घिरा रहता हैं मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व

तुम्हारी घनी अलको का भूल नही पाता मैं सुखद स्पर्श

तुम्हारी सांसो के सुंगंधित हैं उच्छ्वास

तुम्हारी अधरों पर ठहरा पाता अपना नाम

तुम्हारे मस्तक की रेखाओं पर लिखा रहता हैं मेरे लिये चिंता का अहसास

यही हैं एक सच

जिसके आधार पर मैं सोचता -प्रवाहित हैं हर फूल पौधों और प्रकृति में यह प्राण

प्रेम की अनुभूति के बिना इस जग में कण कण बूंद बूंद जन जन कों देख असहाय

कैसे बहेगी मन में करुणा की धार

किशोर