Friday, 2 April 2010

यही हैं एक सच


कैसे करू स्वयं कों अभिव्यक्त

तुम्हारे स्मरण की अमिट छाप हैं मेरे मन पर अंकित

और उसका प्रभाव भी हैं मुझ पर सशक्त

तुम्हारी दृष्टी के व्यापक कोण के आभास से घिरा रहता हैं मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व

तुम्हारी घनी अलको का भूल नही पाता मैं सुखद स्पर्श

तुम्हारी सांसो के सुंगंधित हैं उच्छ्वास

तुम्हारी अधरों पर ठहरा पाता अपना नाम

तुम्हारे मस्तक की रेखाओं पर लिखा रहता हैं मेरे लिये चिंता का अहसास

यही हैं एक सच

जिसके आधार पर मैं सोचता -प्रवाहित हैं हर फूल पौधों और प्रकृति में यह प्राण

प्रेम की अनुभूति के बिना इस जग में कण कण बूंद बूंद जन जन कों देख असहाय

कैसे बहेगी मन में करुणा की धार

किशोर

No comments:

Post a Comment