Friday, 4 June 2010

रहते हम प्रभु के संग तल्लीन



हम प्रभु के संग तल्लीन

उस पार जहां ...न तन की न मन की कामनाये होती हैं अधीर

वहां ........

पर हैं शुभ्र रश्मियों से बना एक श्वेत मन्दिर

रेत के कण कण होते हैं स्वर्णिम

लहरों के शीतल जल से भींगी ...हवा बहती हैं मद्धीम मद्धीम ..

।रंग बिरंगे फूल खिले होते हैं ....सुगंध सहित अनगिन


वहां -

सत्य की चेतना से कण कण होते हैं हर्षित

सारे बिम्ब नहीं होते कांच में समाये प्रतिबिम्बों के अधीन


वहाँ -

तांडव नृत्य में सभी होते हैं प्रवीन

ओम नाद के संग गूंजता मधुर संगीत

अम्रित पान के लिये सभी रहते हैं आतुर

उस लोक से कोई लौटना नहीं चाहता

पर आते हैं हम सभी करने श्रेष्ठ कार्य ताकि -हो सके .....

आनंदित सत्य के चरणों में पुष्पों के सदृश्य हम ...अर्पित


मन्दिर के भीतर विराजती माता पार्वती संग रहते हैं सदा शिव

नागराज .......सखानंद ॥नृत्य प्रशिक्षक और तृष्णा ....प्रसाद के वितरक

शंख ...करताल ...डमरू की ध्वनियों के बीच

ॐ नम: शिवाय के होते हैं मन्त्र उच्चरित


वत्सला -पहन लाल वस्त्र पाती

महादेव और मां अम्बा का सस्नेह आशीष

नन्हे ननकू कों लगती हैं प्यास

तब वह पीता हैं मांगकर अमृत की बुँदे -अतिरिक्त

उस पार जहां -हैं शिवलोक

कनक पुर से होते हुए आकाश में छाये बादलों कों पार करते हुए जाना पड़ता हैं लेकिन

प्रकाश पुंज के भीतर किरणों सा -होकर प्रवाहित

उस पार जहां न तन की न मन की होती हैं कामनाये अधीर

बस

रहते हम प्रभु के संग तल्लीन


बरखा ग्यानी


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