Sunday, 3 October 2010

मेरी आँखों से बह रहें थे अश्रु -नेक


रात में दीपक जल रहें थे अनेक

समीप आकर बुला रहे थे मुझे ...एक

कभी कभी भभकती हुई आग की लपटों सी ज्वालाये लग रही थी -समवेत

जैसे हवन कुंड .... स्वाहा स्वाहा के बाद उगलती हैं आग वैसे ही ज्योतिर लिंग कि शिखायेजल रही थी आज मैंने मन ही मन पूछा था कुछ -नि; शब्द जो मुझे नही था ज्ञात न अब हैं याद


तभी अचानक बजने लगे म्रिदंग और झूम उठा परीवेश

ओम ओम की ध्वनि का हुआ वातावरण में शुभ -प्रवेश


और सुनायी दी-आकाश वाणी यहाँ कोई किसी का नहीं अपनी अपनी दुनिया में मश्गूल हैं हरेक

ईश्वर ही सत्य हैं आपस में सभी करे प्रेम लेकिन आनंद की अनुभूति ही है वह सच जिसके द्वारा तुम -अकेले रही हो मुझे देख


तभी आया था आकाश से एक उतर कर प्रकाश अचानक मैं समुद्र की लहरों से घिर गयी फिर बर्फ की मूर्ति बन तट पर जड़ गयी दूर से मेरी आत्मा ने देखा -हिम सी .... निर्मित मेरी देह


ओम नम: शिवाय का मैं करती रही अविरल जाप समुद्र के नीले मंझ्दार में नृत्य करते हुए दिखाई दिए थे श्री नागदेव


दीपक की लौ आयी मिलकर एक हजार एक


ध्यान से फिर मैं जग उठी थी मेरी आंखों से बह रहे थे आनंद के अश्रु-नेक


*बरखा ज्ञानी

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