Monday, 29 March 2010

शिव लॉक की स्वप्न यात्रा ..के भूलें बिसरे पल


ताम्रवर्णीय रश्मियों से निर्मित

होता हैं शिवपुरी के मंदिर का वह फर्श असीमित

जिस पर सोया करते मैं और मेरे शिशु -पति भू -लोक के कोलाहल को कर विस्मृत

मत रुकना यहाँ देर बहुत रात दो बजे तक लौट ही जाना ॥कहता द्वारपाल सस्मित

प्रसाद रूप में मिलता यहाँसबको एक एक बूंद अमृत

कभी कभी फल भी देते जो होता मीठा और स्वादिष्ट

जिसे ग्रहण करते ही तन और मन दोनों ही हो जाते हमारे तृप्त


किरणों की चकाचौंध से जगमगाता सा लगता हमें अपना ही प्रतिबिम्ब

मंदिर का प्रवेश -द्वार ॥घिरा रहता हरी घासों से ..और सुन्दर फूलो से हो सुगन्धित

लौटते समय शिव लोक और भू लोक के मध्य बिंदु पर एक स्थान मिलता रोज हमें जिसे कहते हैं कनकपुर वह होता सदैव ...स्वर्णिम ज्योतियों से आलोकित


घर पहुँच कर शिशु - पति ...और मैं पीते जल और झूलते झुला गृह -मंदिर के प्रांगन में ॥काल्पनिक मुझसे मेरा शिशु -पति कहता कल फिर जायेंगे मां ..हो हर्षित


स्मरण में कुछ बाते रह गयी हैं जो शेष

उसे बताती हूँ स्मृति पर जोर डाल विशेष


आरती की समाप्ति पर ॥उपस्थित आत्माएं बन जाते हैं रोज कुसुम

पृथ्वी लोक पर लौटने पर दीखता पहले आँखों को ...नीला महा -समुद्र


हे देव आदि देव ॥अधिपति

हे शिव लोक हे शिव पुरी हे शंकर -पार्वती हे नागेश ।हे नंदी

हे देवो में श्रेष्ठ गणपति


हे डमरू ॥हे त्रिशूल हे उड़ने वाले अश्व ..हे प्राण पखेरू हे अमृत कुम्भ ..बूंद बूंद अमृत सबकी जय जय कार कर करती हूँ यही विनती ............

आप सबकी बनी रहे मुझ पर कृपा


न हो कभी मेरी यह यात्रा जीते जी ॥समाप्त

भेद न रह जाए मेरे लिए तीनो लोक हो जाए एक समान


*बरखा ज्ञानी

Sunday, 28 March 2010

शिवपुरी धाम


मैं अब वही हूँ रहती जिसे कहते हैं शिवपुरी धाम


बहुत दूर आकाश के उस पार जहां शिव -शिवा हो एक साथ


वहां एक मन्दिर हैं जिसमे हवन कुंड के पास


बैठे रहते हैं लोग दिन रात


इस बार मैं गयी थी अपने स्वामी की पकड़ बांह


मिल गया हैं अब मुझे और उन्हें भी नीलकंठ और मां का आशीर्वाद


अब हम दोनों के लिये वही पर बन गया हैं निवास


इस जग में आयेंगे पर निपटाने भौतिक जरुरी काम


जब तक इस देह में रहेंगे प्राण


जय महादेव ..जय माँ ..जय जय जय शिवपुरी धाम


बरखा ग्यानी

उठो भक्त वत्सला


शिव जी ने आकर प्रात:


मुझसे कहा


उठो भक्त -वत्सला


मैं आया हूँ


और सम्मुख तेरे खड़ा

मैं तब गहरी नींद में थी

फिर भी भीतर ध्यान मग्न थी मेरी अवचेतना ....

तुम ॐ सत रज तम गुणा

प्रकाश पुंज से अब मेरा तन मन हैं सना


जय श्री शंकर जय श्री मां पार्वती जय गणेशा ॥

जय अर्ध शशि जय डमरू ..जय त्रिशूल जय नंदी ॥जय सिंह ..

जय मां गंगे जय जय ...श्री नागेशा

ॐ नम : शिवाया बोलो हमेशा


जय करतल जय श्वेत शंख जय मृदंग जय घंटा

जय अमृत कुम्भ जय ताम्र -पत्र जय सुमन अनंत रंगा


जय जय शिवपुरी जय जय मंदिर में प्रज्वलित दीप शिखा

हे जय जय जय ॥शिव शिवा


हर हर हर ..महादेवा -

मां अम्बे दिव्या


बरखा ज्ञानी

कुण्डलिनी यात्रा -भाग दो


दूर अंतरिक्ष से आता प्रकाश पुंज
जिसके आकर्षण में खिच जाती
मेरी आत्मा उसमें हो लुप्त
शरीर मेरा पड़ा रह जाता सुप्त
मैं भी बन जाती तब आलोक
मैं और रोशनी
पहुँच जाते फिर शिवलॉक
जहाँ एक श्वेत मन्दिर में
आए रहते असंख्य देवगण
मैं भी हो जाती
फिर
उनमें शामिल सहर्ष
शिव -शिवा की आराधना के लिए
यही होते हैं आरंभिक सौभग्य के क्षण
होता पास सबके एक ताम्रपत्र
जिसमें लिखे होते हैं शिव -मंत्र
ओंकार होता पृष्ठ प्रथम
द्वितीय पन्ने पर
यही अंकित -शिव कण कण में हैं सर्वत्र
बजते रहते हैं करतल
पीतवर्नीय होता हैं देवालय का प्रांगण
मन्दिर के शिखर पर
होता हैं एक स्वर्ण दीप प्रज्वलित
वहां कभी होती नहीं रात
हमेशा रहता दिन
मन्दिर के भीतर होता हैं
एक केशरिया कुंभ
जिसमें भरा होता जल
अमृत का लेकर रूप
शंकर जी के आने के पूर्व
आते नागराज ,नंदी ...तब बजते
डमरू..शंख ..होता मधुर नाद खूब
महादेव के बाद आती..
सोलह स्रिंगार से सजी
माता पार्वती
उनका देख कर सौंदर्य
और मुस्कान ..
पुलकित हो जाते
आत्मा के भी प्राण
अंत में सभी को मिलता
अमृत का एक एक बूँद प्रसाद
अंत में खुश हो कर
नाचते ..झुमते ..
आनंद से भर माहौल हो जाता
अदभूत ..अनुपम ..सुंदर ..
अलौकिक ..सप्तरंगीय और खुशहाल

तभी लौट जाते माँ और प्रभु
देकर सभी को आशीर्वाद
सभी देव लौटते स-आनंद अपने निवास
पर मुझे रोज़ छोड़ जाता
मेरी अचेत देह तक
एक पखेरु सा उड़ता हुवा
बना मेरा ही प्राण
*बरखा ज्ञानी

Tuesday, 16 March 2010

माँ का पाने आशीर्वाद



चढ़ती जांऊ हर सोपान


पर्वत के शिखर पर विराजमान


माँ की ममता का मन्दिर रहा


मुझे आज पुकार


टेड़े -मेडे पथ सर्पीले


हरते मेरा दुःख


तन की खुलती जाती हर बंधी गाँठ


हवा में रिमझिम वर्षा की बुँदे घुलती


मन शीतल हो रहा अति आज


पहुँच ..एक ज्योत जलाउंगी


माँ के पास


तब थिरकेंगे मेरे रोम रोम


आनंदित हो जायेंगे मेरे प्राण


माँ कों ओढाउंगी चूनर लाल


माथे पर लगाउंगी सिंदूर लाल


और


चरणों में करूंगी अर्पित


लाल लाल गुड़हल के फूलो कों


एकजुट संवार


करूंगी प्रणाम .......


दूध और जल से


शिव जी के शीश पर डाल


धतुरा के कडुवे फल रखूंगी ,गिरे मत


इस तरह संभाल


फिर गले में पहनाउंगी नीलकंठ के


कनेर के पीले पीले फूलो से बना इक हार



बदले में माता सिखलाएगी


मुझे


दया धरम का मूल हैं यह पाठ


दुर्गा माँ की शक्ति अनंत हैं


और अथाह


अमर हैं माँ का प्यार

नवरात्री के शुभ अवसर पर

पाने माँ का आशीर्वाद

जान मन के प्रेम की

बहती हैं ब्याकुल धार


बरखा ग्यानी