Sunday 28 March 2010

कुण्डलिनी यात्रा -भाग दो


दूर अंतरिक्ष से आता प्रकाश पुंज
जिसके आकर्षण में खिच जाती
मेरी आत्मा उसमें हो लुप्त
शरीर मेरा पड़ा रह जाता सुप्त
मैं भी बन जाती तब आलोक
मैं और रोशनी
पहुँच जाते फिर शिवलॉक
जहाँ एक श्वेत मन्दिर में
आए रहते असंख्य देवगण
मैं भी हो जाती
फिर
उनमें शामिल सहर्ष
शिव -शिवा की आराधना के लिए
यही होते हैं आरंभिक सौभग्य के क्षण
होता पास सबके एक ताम्रपत्र
जिसमें लिखे होते हैं शिव -मंत्र
ओंकार होता पृष्ठ प्रथम
द्वितीय पन्ने पर
यही अंकित -शिव कण कण में हैं सर्वत्र
बजते रहते हैं करतल
पीतवर्नीय होता हैं देवालय का प्रांगण
मन्दिर के शिखर पर
होता हैं एक स्वर्ण दीप प्रज्वलित
वहां कभी होती नहीं रात
हमेशा रहता दिन
मन्दिर के भीतर होता हैं
एक केशरिया कुंभ
जिसमें भरा होता जल
अमृत का लेकर रूप
शंकर जी के आने के पूर्व
आते नागराज ,नंदी ...तब बजते
डमरू..शंख ..होता मधुर नाद खूब
महादेव के बाद आती..
सोलह स्रिंगार से सजी
माता पार्वती
उनका देख कर सौंदर्य
और मुस्कान ..
पुलकित हो जाते
आत्मा के भी प्राण
अंत में सभी को मिलता
अमृत का एक एक बूँद प्रसाद
अंत में खुश हो कर
नाचते ..झुमते ..
आनंद से भर माहौल हो जाता
अदभूत ..अनुपम ..सुंदर ..
अलौकिक ..सप्तरंगीय और खुशहाल

तभी लौट जाते माँ और प्रभु
देकर सभी को आशीर्वाद
सभी देव लौटते स-आनंद अपने निवास
पर मुझे रोज़ छोड़ जाता
मेरी अचेत देह तक
एक पखेरु सा उड़ता हुवा
बना मेरा ही प्राण
*बरखा ज्ञानी

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