Saturday, 4 December 2010
हे ईश्वर मैं हूँ आपके शरण
Sunday, 3 October 2010
मेरी आँखों से बह रहें थे अश्रु -नेक
तभी अचानक बजने लगे म्रिदंग और झूम उठा परीवेश
एक अमृत कण से भींगी हुई -हरी घास
Saturday, 12 June 2010
मैं मन्दिर में
जाऊ नित नित
ज्योती जलाऊ .लाल फूल चढ़ाऊ
और प्रसाद पाऊ ..नित नित
डोली में बैठकर आत्ती हैं माँ मन्दिर
लाल चुनरिया ओढ़ कर आती
मैं उनका दर्शन पाती नित नित
शक्ती ..मुक्ति पा लेती
माता रहती हमसबके संग
मन्दिर में
naachate गाते सभी मिलकर
माँ का देख शशि मुख
खुशी से मेरा मन जाता हैं झूम
खिले रात में लगे माता की सुन्दरता
उज्जवल दिन सा
मैं चाहू देखती रहूँ उन्हें
और आनंद की
अम्रित की धारा में बह जाऊ
बन एक धारा
देती रहें और मुझे माँ
इसी तरह आशीर्वाद नित नित
बरखा ग्यानी
बरखा ज्ञानी जी ने बताया -१२-०६-2010
शिव और शिवाय: कों प्रणाम
२-ईश्वर प्रेम ही आनंद हैं
आनंद ही ईश्वर प्रेम हैं
प्रेम ही सत्य हैं
सादगी में ही खूबसूरती होती हैं
न चेहेरे में
न मोहरे में
न तन में .....न मन में
न कण कण में ...न ही बूंद बूंद में
बस वत्सला के व्यापक मन में हैं
ईश्वर का वास
जहां जलता हैं एक दीपक
निरन्तर फैला अपना प्रकाश
वहाँ पर हैं अभिन्न
जड़ चेतन का बोध
जीवन में ईश्वर के प्रति
प्रबल आस्था में ही करती हूँ मैं विशवास
हमें वही हैं करना चाहिए कार्य
जैसा उम्मीद करते उनसे ....
अपने लिये शुभ व्यवहार
मुझे हैं ज्ञान
की -
मेरा अवचेतन मन
ढूंढ़ लेगा मेरे लक्ष्य के लिये
अपने अनुकूल वह
आद्यात्मिक संसार
क्योकि -
मैंने कर दीया हैं
अपना सर्वस्य
-ईश्वर या अवचेतन मन या प्रकृति
के सम्मुख -समर्पण
और मुझे भी जानते हैं
निकटता से स्वयं भगवान
साथ ही
मिलता रहता हैं इस साधना में मुझे
सूक्ष्म रूप से आनंद
और मैं हो जाती हूँ क्षण क्षण में विभोर
मुझे हैं यह अनुभव
की -
यही हैं सच्चा प्यार
लेकिन
मैं चुकूँगी नहीं कभी
कर्तव्य निर्वाह के प्रति
जिसमे शामिल हैं
ईश्वर और मेरा सुखमय परिवार
मेरे मन के दरवाजे कों
किसी ने खटखटाया
और
मैं इस लोक से दूर पहुँच गयी
आनंद के लोक फिर एक बार
तब दिखा
मेरे शरीर कों घेरा हैं एक सागर ने
मैं बैठी हूँ अतल में
तभी आये नागराज
मैं झूम उठी खुशी से
फिर एकाएक -बह गयी नदी के संग
और बिखरी सप्त वर्णीय रोशनी
फिर
जला एक द्दीया -उससे प्रेरित हो जले
दीपक अनेक
ॐ ॐ की गूंज सुन
मैं स्वयं बन गयी ध्वनी वह
जो निमग्न थी
बन उन किरणों की शीतल आंच
तभी आयी नंदी गाय
उसका रूप निरख
मैं हो गयी अभिभूत
फिर नदी की लहरों ने फेरे हाथ
तट क्षण मैं
पीकर अम्रित बन गयी नन्ही बालिका
फिर मुझे दिखा सफ़ेद मन्दिर
जहां पहुंचे मैं औए मेरे बाल सखा नाग
तभी
नीले आकाश से आयी एक रोशनी
जो मुझे लेकर साथ
ले आयी पुन:
इस धरती में मेरी देह के पास
फिर हवा में मैं आत्मा ....झूला झूलती रही
फिर मुझे बुलाया प्रकाश के घर ने
उसे पार कर
पहुंची भीतर अपनी देह में
कुछ समय तक माता की ऊर्जा ने
दिखलाए साहसिक कमाल
अंत में इस प्रकार
मैं मरकर फिर
पुनर जीवित हो उठी ॥
ऐसा होता हैं मेरी दिनचर्या में
अनेको बार
बरखा ग्यानी
Friday, 4 June 2010
रहते हम प्रभु के संग तल्लीन
हम प्रभु के संग तल्लीन
Tuesday, 13 April 2010
दिखा भव्य मन्दिर एक
Friday, 2 April 2010
यही हैं एक सच
Monday, 29 March 2010
शिव लॉक की स्वप्न यात्रा ..के भूलें बिसरे पल
Sunday, 28 March 2010
शिवपुरी धाम
उठो भक्त वत्सला
कुण्डलिनी यात्रा -भाग दो
जिसके आकर्षण में खिच जाती
मेरी आत्मा उसमें हो लुप्त
शरीर मेरा पड़ा रह जाता सुप्त
मैं भी बन जाती तब आलोक
मैं और रोशनी
पहुँच जाते फिर शिवलॉक
जहाँ एक श्वेत मन्दिर में
आए रहते असंख्य देवगण
मैं भी हो जाती
फिर
उनमें शामिल सहर्ष
शिव -शिवा की आराधना के लिए
यही होते हैं आरंभिक सौभग्य के क्षण
होता पास सबके एक ताम्रपत्र
जिसमें लिखे होते हैं शिव -मंत्र
ओंकार होता पृष्ठ प्रथम
द्वितीय पन्ने पर
यही अंकित -शिव कण कण में हैं सर्वत्र
बजते रहते हैं करतल
पीतवर्नीय होता हैं देवालय का प्रांगण
मन्दिर के शिखर पर
होता हैं एक स्वर्ण दीप प्रज्वलित
वहां कभी होती नहीं रात
हमेशा रहता दिन
मन्दिर के भीतर होता हैं
एक केशरिया कुंभ
जिसमें भरा होता जल
अमृत का लेकर रूप
शंकर जी के आने के पूर्व
आते नागराज ,नंदी ...तब बजते
डमरू..शंख ..होता मधुर नाद खूब
महादेव के बाद आती..
सोलह स्रिंगार से सजी
माता पार्वती
उनका देख कर सौंदर्य
और मुस्कान ..
पुलकित हो जाते
आत्मा के भी प्राण
अंत में सभी को मिलता
अमृत का एक एक बूँद प्रसाद
अंत में खुश हो कर
नाचते ..झुमते ..
आनंद से भर माहौल हो जाता
अदभूत ..अनुपम ..सुंदर ..
अलौकिक ..सप्तरंगीय और खुशहाल
तभी लौट जाते माँ और प्रभु
देकर सभी को आशीर्वाद
सभी देव लौटते स-आनंद अपने निवास
पर मुझे रोज़ छोड़ जाता
मेरी अचेत देह तक
एक पखेरु सा उड़ता हुवा
बना मेरा ही प्राण
*बरखा ज्ञानी
Tuesday, 16 March 2010
माँ का पाने आशीर्वाद
चढ़ती जांऊ हर सोपान
पर्वत के शिखर पर विराजमान
माँ की ममता का मन्दिर रहा
मुझे आज पुकार
टेड़े -मेडे पथ सर्पीले
हरते मेरा दुःख
तन की खुलती जाती हर बंधी गाँठ
हवा में रिमझिम वर्षा की बुँदे घुलती
मन शीतल हो रहा अति आज
पहुँच ..एक ज्योत जलाउंगी
माँ के पास
तब थिरकेंगे मेरे रोम रोम
आनंदित हो जायेंगे मेरे प्राण
माँ कों ओढाउंगी चूनर लाल
माथे पर लगाउंगी सिंदूर लाल
और
चरणों में करूंगी अर्पित
लाल लाल गुड़हल के फूलो कों
एकजुट संवार
करूंगी प्रणाम .......
दूध और जल से
शिव जी के शीश पर डाल
धतुरा के कडुवे फल रखूंगी ,गिरे मत
इस तरह संभाल
फिर गले में पहनाउंगी नीलकंठ के
कनेर के पीले पीले फूलो से बना इक हार
बदले में माता सिखलाएगी
मुझे
दया धरम का मूल हैं यह पाठ
दुर्गा माँ की शक्ति अनंत हैं
और अथाह
अमर हैं माँ का प्यार
नवरात्री के शुभ अवसर पर
पाने माँ का आशीर्वाद
जान मन के प्रेम की
बहती हैं ब्याकुल धार
बरखा ग्यानी