Saturday, 4 December 2010

हे ईश्वर मैं हूँ आपके शरण




हे ईश्वर मैं हूँ आपके शरण


मैं भक्ति भाव से प्राथना करती हूँ


मुझे ईश्वर का इंतज़ार हैं


पाने को दर्शन


मेरे घर -आँगन का द्वार खुला हैं


ईश्वर आने को


राह देख रहे हैं मेरे नयन


पाने को दर्शन




ध्यान में मेरा तन -मन हो गाया हैं मगन


मैं ईश्वर की हो चुकी हो भक्तन


मुझे ईश्वर का इंतज़ार हैं पाने को दर्शन




मै हाथ में फूल और जल लिए खड़ी हूँ


राह मेंआँखें बिछाये


मेरे भगवान ॥डमरू ..त्रिशूल लेकर आयेंगे


मेरे घर के द्वार तक


ईश्वर का मुझे इंतज़ार हैं पाने को दर्शन




मेरा मन और तन कुछ भी नही हैं


में ..ईश्वर के हो गयी हूँ अधीन


और कुछ नही रहेगा केवल आकाश ,अग्नि ,जल ,हवा और पृथ्वी सब रहेंगे




मैं ॥मैं नहीं हूँ एक आत्मा हूँ .......


शिव जी की भक्त हूँ


मेरा नाम हैं भक्त वत्सला


मैं एकांत का मन


हूँमैं आनंद का स्वरूप


हूँमैं सत्य की पूर्णता हूँ


मेरे हृदय में प्रकाश हैं


ईश्वर का वास हैं


ज्योतिर लिंग का उजाला हैं


मैं सत हूँ


मै चित्त हूँ


मैं आनंद हूँ


मैं सुख हो या दुःख हर समय उपस्थित हूँ


मैं मिट्टी की प्रतिमा हूँ


उसमें मैं संचरित हुआ -प्राण हूँ




मैं अनंत ,अनंत काल तक


आदी देव ..शिव -शिवा हूँ


ईश्वर मैं हूँ आपके शरण




मैं भक्ति भाव से प्राथना करती हूँ


मुझे ईश्वर का इंतज़ार हैं पाने को दर्शन




मेरे घर -आँगन का द्वार खुला हैं


ईश्वर आने


को राह देख रहे हैं .........मेरे नयन


पाने को दर्शन


*बरखा ज्ञानी

Sunday, 3 October 2010

मेरी आँखों से बह रहें थे अश्रु -नेक


रात में दीपक जल रहें थे अनेक

समीप आकर बुला रहे थे मुझे ...एक

कभी कभी भभकती हुई आग की लपटों सी ज्वालाये लग रही थी -समवेत

जैसे हवन कुंड .... स्वाहा स्वाहा के बाद उगलती हैं आग वैसे ही ज्योतिर लिंग कि शिखायेजल रही थी आज मैंने मन ही मन पूछा था कुछ -नि; शब्द जो मुझे नही था ज्ञात न अब हैं याद


तभी अचानक बजने लगे म्रिदंग और झूम उठा परीवेश

ओम ओम की ध्वनि का हुआ वातावरण में शुभ -प्रवेश


और सुनायी दी-आकाश वाणी यहाँ कोई किसी का नहीं अपनी अपनी दुनिया में मश्गूल हैं हरेक

ईश्वर ही सत्य हैं आपस में सभी करे प्रेम लेकिन आनंद की अनुभूति ही है वह सच जिसके द्वारा तुम -अकेले रही हो मुझे देख


तभी आया था आकाश से एक उतर कर प्रकाश अचानक मैं समुद्र की लहरों से घिर गयी फिर बर्फ की मूर्ति बन तट पर जड़ गयी दूर से मेरी आत्मा ने देखा -हिम सी .... निर्मित मेरी देह


ओम नम: शिवाय का मैं करती रही अविरल जाप समुद्र के नीले मंझ्दार में नृत्य करते हुए दिखाई दिए थे श्री नागदेव


दीपक की लौ आयी मिलकर एक हजार एक


ध्यान से फिर मैं जग उठी थी मेरी आंखों से बह रहे थे आनंद के अश्रु-नेक


*बरखा ज्ञानी

एक अमृत कण से भींगी हुई -हरी घास




ईश्वर ॥आपको में करती हूँ हृदय से प्रणाम


नतमस्तक हूँ


झुकी हूँ साशटाँग


बहुत गहरा हैं आपसे मेरा रिश्ता


उस बात से मेरी हुई आज पहचान


मेरे रक्त के हर बूँद में


ओम नमः शिवाया के रूप में लिखा हुआ हैं आपका नाम


उसी के ले रहे हैं आनंद ...मेरे जीवन के अनंत काल


पूर्ण ज्ञान का हो रहा हैं मुझे धीरे धीरे अब आभास


मुझे आप पर हैं विश्वास


और आपको मुझसे पुत्री -वत हैं बहुत प्यार


आपके स्वरूप से


रूप से ,॥मै सम्मोहित रहती हूँ दिवस -रात


मेरी आंखों में बस गए हैं प्रकाश के सद्रिश्य आप


मेरे जन्म मरनआप पर हैं कुर्बान


सब आप ही हैं देव आदिदेव


मुझ भक्त वत्सला के लिए हे शिव आप ही हो महान


शिव -ज्योतिर लिंग के ऊपर जलती हैं आपके प्रति मेरे स्मरण की शिखा


जिसके नोक से आती हैं ज्योति मेरी आंखों तक सीधी


और में स्व्यम बन गई हूँ चमकती स्वर्णिम रोशनी सी - सविता


ठोस बर्फ सी मै हो जाती हूँ जब


बह्ते हो मेरी नसों में गर्म रक्त -जल बनकर आप तब


ध्यान मगन रहती हूँ जब


आपके रंग - रूप के तीव्र आकर्षण के राग लगते तब


मुझे अमृत के हो बुलाते हुए से शीतल - भाप


मन के भीतर हो जाती आपके खयाल में मैं अचेतन .......तब


उस अचेतन मन में तुम्हारी चेतना की मैं सुनती हूँ मधुर धुन


और खिचती हुई सी पार कर एक जल-दर्पण का काँच पहुँचती हूँ


धंसती हुई ...रेत के तरल बूँदों के उस पार


जहाँ पर ............एक श्वेत मंदिर करता रहता हैं सदैव मेरा इंतज़ार




जहाँ पर रहते हैं शिवा ,नागदेव ,सखानंद ,तृष्णा और गणेश महाराज


उसे कहते हैं शिवपुरी धाम


ननकू और में पूजा के आख़िर में करते हैं ॥अमृत बूँदों का पान


वहां पर रहती हैं समस्त देव तुल्य -आत्माये सफेद फूलों के समान


जब लौटती हूँ कर शिव लॉक का संपूर्ण ध्यान


तब एक दीप से ........जल उठते हैं ........अनेक दीप एकाएक एक साथ




सुगंधित धुओ का उड़ता हैं मेरे समक्ष फिर एक पारदर्शी धूम्र -आड़


देखती हूँ एक कागज को जलते हुए मानों हो वह ....मेरा प्राण




नागदेव आते हैं अंत में ...?मेरे पास


अपनी त्वचा से करते चंदन जैसा मुझे ...स्पर्श -प्रदान


साथ होती है बहुत सी गाय




हरे भरे पेड़ पौधों के मध्यमुझे लगता हैं


मैं हूँ उगी हुई -मानों एक अमृत ओस कणसे भिंगी हुई ... हरी घास




*बरखा ज्ञानी


Saturday, 12 June 2010

मैं मन्दिर में

मैं माता के मन्दिर में
जाऊ नित नित
ज्योती जलाऊ .लाल फूल चढ़ाऊ
और प्रसाद पाऊ ..नित नित

डोली में बैठकर आत्ती हैं माँ मन्दिर
लाल चुनरिया ओढ़ कर आती
मैं उनका दर्शन पाती नित नित
शक्ती ..मुक्ति पा लेती
माता रहती हमसबके संग
मन्दिर में
naachate गाते सभी मिलकर
माँ का देख शशि मुख
खुशी से मेरा मन जाता हैं झूम
खिले रात में लगे माता की सुन्दरता
उज्जवल दिन सा
मैं चाहू देखती रहूँ उन्हें
और आनंद की
अम्रित की धारा में बह जाऊ
बन एक धारा
देती रहें और मुझे माँ
इसी तरह आशीर्वाद नित नित

बरखा ग्यानी


बरखा ज्ञानी जी ने बताया -१२-०६-2010

१-आस्था शिव जी की -
शिव और शिवाय: कों प्रणाम

२-ईश्वर प्रेम ही आनंद हैं
आनंद ही ईश्वर प्रेम हैं
प्रेम ही सत्य हैं
सादगी में ही खूबसूरती होती हैं
न चेहेरे में
न मोहरे में
न तन में .....न मन में
न कण कण में ...न ही बूंद बूंद में
बस वत्सला के व्यापक मन में हैं
ईश्वर का वास
जहां जलता हैं एक दीपक
निरन्तर फैला अपना प्रकाश
वहाँ पर हैं अभिन्न
जड़ चेतन का बोध
जीवन में ईश्वर के प्रति
प्रबल आस्था में ही करती हूँ मैं विशवास
हमें वही हैं करना चाहिए कार्य
जैसा उम्मीद करते उनसे ....
अपने लिये शुभ व्यवहार
मुझे हैं ज्ञान
की -
मेरा अवचेतन मन
ढूंढ़ लेगा मेरे लक्ष्य के लिये
अपने अनुकूल वह
आद्यात्मिक संसार
क्योकि -
मैंने कर दीया हैं
अपना सर्वस्य
-ईश्वर या अवचेतन मन या प्रकृति
के सम्मुख -समर्पण
और मुझे भी जानते हैं
निकटता से स्वयं भगवान
साथ ही
मिलता रहता हैं इस साधना में मुझे
सूक्ष्म रूप से आनंद
और मैं हो जाती हूँ क्षण क्षण में विभोर
मुझे हैं यह अनुभव
की -
यही हैं सच्चा प्यार
लेकिन
मैं चुकूँगी नहीं कभी
कर्तव्य निर्वाह के प्रति
जिसमे शामिल हैं
ईश्वर और मेरा सुखमय परिवार

मेरे मन के दरवाजे कों
किसी ने खटखटाया
और
मैं इस लोक से दूर पहुँच गयी
आनंद के लोक फिर एक बार
तब दिखा
मेरे शरीर कों घेरा हैं एक सागर ने
मैं बैठी हूँ अतल में
तभी आये नागराज
मैं झूम उठी खुशी से
फिर एकाएक -बह गयी नदी के संग
और बिखरी सप्त वर्णीय रोशनी
फिर
जला एक द्दीया -उससे प्रेरित हो जले
दीपक अनेक
ॐ ॐ की गूंज सुन
मैं स्वयं बन गयी ध्वनी वह
जो निमग्न थी
बन उन किरणों की शीतल आंच

तभी आयी नंदी गाय
उसका रूप निरख
मैं हो गयी अभिभूत
फिर नदी की लहरों ने फेरे हाथ

तट क्षण मैं
पीकर अम्रित बन गयी नन्ही बालिका
फिर मुझे दिखा सफ़ेद मन्दिर
जहां पहुंचे मैं औए मेरे बाल सखा नाग
तभी
नीले आकाश से आयी एक रोशनी
जो मुझे लेकर साथ
ले आयी पुन:
इस धरती में मेरी देह के पास
फिर हवा में मैं आत्मा ....झूला झूलती रही
फिर मुझे बुलाया प्रकाश के घर ने
उसे पार कर
पहुंची भीतर अपनी देह में
कुछ समय तक माता की ऊर्जा ने
दिखलाए साहसिक कमाल
अंत में इस प्रकार
मैं मरकर फिर
पुनर जीवित हो उठी ॥
ऐसा होता हैं मेरी दिनचर्या में
अनेको बार

बरखा ग्यानी




Friday, 4 June 2010

रहते हम प्रभु के संग तल्लीन



हम प्रभु के संग तल्लीन

उस पार जहां ...न तन की न मन की कामनाये होती हैं अधीर

वहां ........

पर हैं शुभ्र रश्मियों से बना एक श्वेत मन्दिर

रेत के कण कण होते हैं स्वर्णिम

लहरों के शीतल जल से भींगी ...हवा बहती हैं मद्धीम मद्धीम ..

।रंग बिरंगे फूल खिले होते हैं ....सुगंध सहित अनगिन


वहां -

सत्य की चेतना से कण कण होते हैं हर्षित

सारे बिम्ब नहीं होते कांच में समाये प्रतिबिम्बों के अधीन


वहाँ -

तांडव नृत्य में सभी होते हैं प्रवीन

ओम नाद के संग गूंजता मधुर संगीत

अम्रित पान के लिये सभी रहते हैं आतुर

उस लोक से कोई लौटना नहीं चाहता

पर आते हैं हम सभी करने श्रेष्ठ कार्य ताकि -हो सके .....

आनंदित सत्य के चरणों में पुष्पों के सदृश्य हम ...अर्पित


मन्दिर के भीतर विराजती माता पार्वती संग रहते हैं सदा शिव

नागराज .......सखानंद ॥नृत्य प्रशिक्षक और तृष्णा ....प्रसाद के वितरक

शंख ...करताल ...डमरू की ध्वनियों के बीच

ॐ नम: शिवाय के होते हैं मन्त्र उच्चरित


वत्सला -पहन लाल वस्त्र पाती

महादेव और मां अम्बा का सस्नेह आशीष

नन्हे ननकू कों लगती हैं प्यास

तब वह पीता हैं मांगकर अमृत की बुँदे -अतिरिक्त

उस पार जहां -हैं शिवलोक

कनक पुर से होते हुए आकाश में छाये बादलों कों पार करते हुए जाना पड़ता हैं लेकिन

प्रकाश पुंज के भीतर किरणों सा -होकर प्रवाहित

उस पार जहां न तन की न मन की होती हैं कामनाये अधीर

बस

रहते हम प्रभु के संग तल्लीन


बरखा ग्यानी


Tuesday, 13 April 2010

दिखा भव्य मन्दिर एक


मंद शीतल हवा के साथ मैं बह रही थी

दूर से सुनायी दे रहा था संगीत एवं मधुर गीत ॥समवेत

दूध सा सफ़ेद

दिखा भव्य मन्दिर एक

आस पास दूब हरे कुछ कंटीले थे पेड़

मध्य में उनके ही बाहर मन्दिर

जलाशय से निकली एक ज्योती -जल-परतों कों भेद

जब आयी मां दुर्गा संग महेश

सिंह पर बैठीं लिये रूप में -था सूर्य सा तेज

और हाथों में थे शस्त्र अनेक

झुण्ड में उड़ रहें थे हंस तभी आयी माँ सरस्वती

कर में थी -वीणा और वेद

हंस पर विराजित शुभ्र वस्त्र कों धारण किये हुए था वेश

ध्यान मग्ना मैं थी प्रसन्न बहुत

लग रहा था वहीँ रह जाऊ जहां पर थे सम्मुख मेरे -नृत्य करते प्रकाश बिन्दुओ के पुंज ।

शिव शिवा समेत *

बरखा ग्यानी

Friday, 2 April 2010

यही हैं एक सच


कैसे करू स्वयं कों अभिव्यक्त

तुम्हारे स्मरण की अमिट छाप हैं मेरे मन पर अंकित

और उसका प्रभाव भी हैं मुझ पर सशक्त

तुम्हारी दृष्टी के व्यापक कोण के आभास से घिरा रहता हैं मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व

तुम्हारी घनी अलको का भूल नही पाता मैं सुखद स्पर्श

तुम्हारी सांसो के सुंगंधित हैं उच्छ्वास

तुम्हारी अधरों पर ठहरा पाता अपना नाम

तुम्हारे मस्तक की रेखाओं पर लिखा रहता हैं मेरे लिये चिंता का अहसास

यही हैं एक सच

जिसके आधार पर मैं सोचता -प्रवाहित हैं हर फूल पौधों और प्रकृति में यह प्राण

प्रेम की अनुभूति के बिना इस जग में कण कण बूंद बूंद जन जन कों देख असहाय

कैसे बहेगी मन में करुणा की धार

किशोर

Monday, 29 March 2010

शिव लॉक की स्वप्न यात्रा ..के भूलें बिसरे पल


ताम्रवर्णीय रश्मियों से निर्मित

होता हैं शिवपुरी के मंदिर का वह फर्श असीमित

जिस पर सोया करते मैं और मेरे शिशु -पति भू -लोक के कोलाहल को कर विस्मृत

मत रुकना यहाँ देर बहुत रात दो बजे तक लौट ही जाना ॥कहता द्वारपाल सस्मित

प्रसाद रूप में मिलता यहाँसबको एक एक बूंद अमृत

कभी कभी फल भी देते जो होता मीठा और स्वादिष्ट

जिसे ग्रहण करते ही तन और मन दोनों ही हो जाते हमारे तृप्त


किरणों की चकाचौंध से जगमगाता सा लगता हमें अपना ही प्रतिबिम्ब

मंदिर का प्रवेश -द्वार ॥घिरा रहता हरी घासों से ..और सुन्दर फूलो से हो सुगन्धित

लौटते समय शिव लोक और भू लोक के मध्य बिंदु पर एक स्थान मिलता रोज हमें जिसे कहते हैं कनकपुर वह होता सदैव ...स्वर्णिम ज्योतियों से आलोकित


घर पहुँच कर शिशु - पति ...और मैं पीते जल और झूलते झुला गृह -मंदिर के प्रांगन में ॥काल्पनिक मुझसे मेरा शिशु -पति कहता कल फिर जायेंगे मां ..हो हर्षित


स्मरण में कुछ बाते रह गयी हैं जो शेष

उसे बताती हूँ स्मृति पर जोर डाल विशेष


आरती की समाप्ति पर ॥उपस्थित आत्माएं बन जाते हैं रोज कुसुम

पृथ्वी लोक पर लौटने पर दीखता पहले आँखों को ...नीला महा -समुद्र


हे देव आदि देव ॥अधिपति

हे शिव लोक हे शिव पुरी हे शंकर -पार्वती हे नागेश ।हे नंदी

हे देवो में श्रेष्ठ गणपति


हे डमरू ॥हे त्रिशूल हे उड़ने वाले अश्व ..हे प्राण पखेरू हे अमृत कुम्भ ..बूंद बूंद अमृत सबकी जय जय कार कर करती हूँ यही विनती ............

आप सबकी बनी रहे मुझ पर कृपा


न हो कभी मेरी यह यात्रा जीते जी ॥समाप्त

भेद न रह जाए मेरे लिए तीनो लोक हो जाए एक समान


*बरखा ज्ञानी

Sunday, 28 March 2010

शिवपुरी धाम


मैं अब वही हूँ रहती जिसे कहते हैं शिवपुरी धाम


बहुत दूर आकाश के उस पार जहां शिव -शिवा हो एक साथ


वहां एक मन्दिर हैं जिसमे हवन कुंड के पास


बैठे रहते हैं लोग दिन रात


इस बार मैं गयी थी अपने स्वामी की पकड़ बांह


मिल गया हैं अब मुझे और उन्हें भी नीलकंठ और मां का आशीर्वाद


अब हम दोनों के लिये वही पर बन गया हैं निवास


इस जग में आयेंगे पर निपटाने भौतिक जरुरी काम


जब तक इस देह में रहेंगे प्राण


जय महादेव ..जय माँ ..जय जय जय शिवपुरी धाम


बरखा ग्यानी

उठो भक्त वत्सला


शिव जी ने आकर प्रात:


मुझसे कहा


उठो भक्त -वत्सला


मैं आया हूँ


और सम्मुख तेरे खड़ा

मैं तब गहरी नींद में थी

फिर भी भीतर ध्यान मग्न थी मेरी अवचेतना ....

तुम ॐ सत रज तम गुणा

प्रकाश पुंज से अब मेरा तन मन हैं सना


जय श्री शंकर जय श्री मां पार्वती जय गणेशा ॥

जय अर्ध शशि जय डमरू ..जय त्रिशूल जय नंदी ॥जय सिंह ..

जय मां गंगे जय जय ...श्री नागेशा

ॐ नम : शिवाया बोलो हमेशा


जय करतल जय श्वेत शंख जय मृदंग जय घंटा

जय अमृत कुम्भ जय ताम्र -पत्र जय सुमन अनंत रंगा


जय जय शिवपुरी जय जय मंदिर में प्रज्वलित दीप शिखा

हे जय जय जय ॥शिव शिवा


हर हर हर ..महादेवा -

मां अम्बे दिव्या


बरखा ज्ञानी

कुण्डलिनी यात्रा -भाग दो


दूर अंतरिक्ष से आता प्रकाश पुंज
जिसके आकर्षण में खिच जाती
मेरी आत्मा उसमें हो लुप्त
शरीर मेरा पड़ा रह जाता सुप्त
मैं भी बन जाती तब आलोक
मैं और रोशनी
पहुँच जाते फिर शिवलॉक
जहाँ एक श्वेत मन्दिर में
आए रहते असंख्य देवगण
मैं भी हो जाती
फिर
उनमें शामिल सहर्ष
शिव -शिवा की आराधना के लिए
यही होते हैं आरंभिक सौभग्य के क्षण
होता पास सबके एक ताम्रपत्र
जिसमें लिखे होते हैं शिव -मंत्र
ओंकार होता पृष्ठ प्रथम
द्वितीय पन्ने पर
यही अंकित -शिव कण कण में हैं सर्वत्र
बजते रहते हैं करतल
पीतवर्नीय होता हैं देवालय का प्रांगण
मन्दिर के शिखर पर
होता हैं एक स्वर्ण दीप प्रज्वलित
वहां कभी होती नहीं रात
हमेशा रहता दिन
मन्दिर के भीतर होता हैं
एक केशरिया कुंभ
जिसमें भरा होता जल
अमृत का लेकर रूप
शंकर जी के आने के पूर्व
आते नागराज ,नंदी ...तब बजते
डमरू..शंख ..होता मधुर नाद खूब
महादेव के बाद आती..
सोलह स्रिंगार से सजी
माता पार्वती
उनका देख कर सौंदर्य
और मुस्कान ..
पुलकित हो जाते
आत्मा के भी प्राण
अंत में सभी को मिलता
अमृत का एक एक बूँद प्रसाद
अंत में खुश हो कर
नाचते ..झुमते ..
आनंद से भर माहौल हो जाता
अदभूत ..अनुपम ..सुंदर ..
अलौकिक ..सप्तरंगीय और खुशहाल

तभी लौट जाते माँ और प्रभु
देकर सभी को आशीर्वाद
सभी देव लौटते स-आनंद अपने निवास
पर मुझे रोज़ छोड़ जाता
मेरी अचेत देह तक
एक पखेरु सा उड़ता हुवा
बना मेरा ही प्राण
*बरखा ज्ञानी

Tuesday, 16 March 2010

माँ का पाने आशीर्वाद



चढ़ती जांऊ हर सोपान


पर्वत के शिखर पर विराजमान


माँ की ममता का मन्दिर रहा


मुझे आज पुकार


टेड़े -मेडे पथ सर्पीले


हरते मेरा दुःख


तन की खुलती जाती हर बंधी गाँठ


हवा में रिमझिम वर्षा की बुँदे घुलती


मन शीतल हो रहा अति आज


पहुँच ..एक ज्योत जलाउंगी


माँ के पास


तब थिरकेंगे मेरे रोम रोम


आनंदित हो जायेंगे मेरे प्राण


माँ कों ओढाउंगी चूनर लाल


माथे पर लगाउंगी सिंदूर लाल


और


चरणों में करूंगी अर्पित


लाल लाल गुड़हल के फूलो कों


एकजुट संवार


करूंगी प्रणाम .......


दूध और जल से


शिव जी के शीश पर डाल


धतुरा के कडुवे फल रखूंगी ,गिरे मत


इस तरह संभाल


फिर गले में पहनाउंगी नीलकंठ के


कनेर के पीले पीले फूलो से बना इक हार



बदले में माता सिखलाएगी


मुझे


दया धरम का मूल हैं यह पाठ


दुर्गा माँ की शक्ति अनंत हैं


और अथाह


अमर हैं माँ का प्यार

नवरात्री के शुभ अवसर पर

पाने माँ का आशीर्वाद

जान मन के प्रेम की

बहती हैं ब्याकुल धार


बरखा ग्यानी